नहाय-खाय के साथ आज से छठ महापर्व शुरू

महापर्व पर विशेष : द्रौपदी ने भी किया था “छठ व्रत”  श्रीश्री शैलेश गुरुजी

ओम ध्यान योग आध्यात्मिक साधना व सत्संग सेवाश्रम के संस्थापक, आध्यात्मिक गुरु, वास्तु एवं ज्योतिषविद श्रीश्री शैलेश गुरुजी ने सूर्य षष्ठी छठ व्रत पर प्रकाश डालते हुए कहा कि बिहार ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत सहित अब तो विश्व के कई देशों में प्रवासी भारतियों के द्वारा बड़े ही पवित्र आस्था श्राद्ध व विश्वास के साथ मनाये जाने वाला महान पर्व छठ अति लोकप्रिय है। वर्ष में दो बार आयोजित होने वाला यह पर्व कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को और चैत माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाता है।

महापर्व छठ “सूर्य षष्ठी व्रत” के नाम से जाना जाता है तथा इसे डाला छठ और महाभारत पर्व भी कहते हैं। सामान्य लोगों की मान्यता है कि छठ माता की निष्ठापूर्वक आराधना से सन्तानोत्पत्ति होती है तथा परिवार में अमन चैन कायम रहता है। असाध्य रोगों से मुक्ति मिल जाने के कारण महिलाओं के साथ साथ पुरुष भी इस पवित्र व कठिन महापर्व का पालन करने लगे हैं।
इस पर्व में सूर्य देव की पूजा अर्चना की जाती है, जिसमें किसी पण्डित या पुरोहित की ज़रूरत नहीं पड़ती। प्राचीन काल से ही सूर्यदेव को जगत पितामह माना जाता है। इस महान धार्मिक पर्व के सन्दर्भ में कई पौराणिक कथाएं प्रचलित है, उसमें एक यह भी है कि यह पर्व महाभारत के समय से प्रारंभ हुआ। श्रीश्री शैलेश गुरुजी ने कथा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि कथानुसार :- जब पांडव अपना सारा राज- पाट हार गए और जंगलों में भटकने लगे थे तभी असहय विपत्ति और संकट से मुक्ति के लिए द्रौपदी ने सूर्य देव की आराधना के लिए छठ व्रत किया। इस व्रत के बाद ही पांडवों का अपना राज-पाट पुनः वापस (प्राप्त) हो गया। वहीं कुन्ती ने सूर्य उपासना से ही पुत्रों की प्राप्ति की थी और कृष्ण पुत्र शांब का कुष्ठ रोग सूर्य उपासना से क्षय (दूर) हुआ था। इस घटना को मानकर ही इस महान पर्व को “महाभारत पर्व” भी कहते आ रहे हैं। इसके पश्चात से प्रति वर्ष छठ (सूर्य षष्ठी) व्रत किया जाने लगा।

यह पर्व शुक्ल पक्ष चतुर्थी से प्रारंभ हो कर सप्तमी को जाकर समाप्त होता है। पंचमी को खरना कर, षष्ठी को दिन और रात व्रत धारण कर सप्तमी की सुबह सूर्योदय के समय सूर्य देव की अंतिम पूजा ( प्रातः अर्घ्य) के उपरान्त ही व्रतियों द्वारा अन्न जल ग्रहण कर पारण किया जाता है। इस पर्व में नदी या तालाब में जाकर पूजा अर्चना (अर्घ्य) की जाती है। महापर्व के इस पूजा में सूर्य देव को फल फूल और ठेकुआ जैसे प्रसाद के साथ अर्घ्य प्रदान किया जाता है। प्रसाद में आटे से बने ठेकुआ की अधिक महत्ता रहती है। इस सब प्रसाद को बांस के बने डगरा, सूप या पीतल की थाली में सजाकर षष्ठी को डूबते सूर्यदेव को तथा सप्तमी को उगते सूर्यदेव को अर्घ्य दान दिया जाता है। डूबते सूर्य को संझिया अरग और उगते सूर्य के अर्घ्य दान को “भोरूआ अरग’ या परना कहा जाता है। अर्घ्य दूध और जल से ही देने का विधान है। चार दिनों के इस महापर्व में रात भर दीप मलिका सजा कर गीत मंगल आदि का आयोजन कर व्रती “ए छठी मइया” को बार बार गोहराती हैं, इस अवसर पर जो भी गीत गए जाते हैं (लोकगीत) वे प्रायः पारम्परिक सूर्य देव से सम्बन्धित होते है। असाध्य रोगों से मुक्ति मिलते रहने से ही इस पर्व में अमीर गरीब सभी की एक ही भावना रहती है और मनोवांछित फल के लिए मनौती मानी जाती रही है। मनोवांछित फल की प्राप्ति के बाद इस महापर्व को लोग बड़े ही निष्ठा और श्रद्धा के साथ मनाते हैं। पवित्र आस्था और भक्ति भावना से ओत- प्रोत का महापर्व है छठ पर्व।

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