व्यापार के इरादे से भारत में कदम रखने वाली ईस्ट इंडिया कम्पनी के कर्ता-धर्ताओं ने जब यहां रियासतों और राजाओं का आपसी टकराव व बिखराव देखा तो उनमें राजनीतिक महत्वाकांक्षा जागी। 12 अगस्त 1765 को अंग्रेजों की इस महत्वाकांक्षा को मूर्त रूप मिला, जब मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किए। इतिहास में इसे इलाहाबाद संधि के नाम से जाना जाता है।

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इलाहाबाद संधि एक युगांतकारी घटना थी। इस संधि के जरिये मुगल शासन का खात्मा और अंग्रेजों की हुकूमत की बुनियाद रखी गई। ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत की राजनीतिक व संवैधानिक व्यवस्था में निर्णायक दखल का अधिकार मिल गया। इससे नवाब की सत्ता का अंत हो गया और ऐसी व्यवस्था का जन्म हुआ जो शासन के उत्तरदायित्वों से मुक्त थी।

दरअसल, शाह आलम द्वितीय ने इस संधि के माध्यम से ईस्ट इंडिया कंपनी को पूर्वी प्रांत बंगाल, बिहार और उड़ीसा को बादशाह की तरफ से कर वसूलने का अधिकार दे दिया। कपनी ने मुगल सम्राट को 26 लाख रुपये वार्षिक पेंशन देना स्वीकार किया। इस संधि के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के साम्राज्यवादी मंसूबों को परवान चढ़ने में ज्यादा वक्त नहीं लगा।

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