इतिहास के पन्नों में 11 अगस्त : खुदीराम बोस ने हंसते हुए फांसी को गले लगाया

वैश्विक इतिहास के पन्नों में 11 अगस्त तमाम वजहों की वजह से दर्ज है। मगर भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में 11 अगस्त का अहम स्थान है। इस तारीख का यह किस्सा आजादी की लड़ाई में नौजवानों की भूमिका को रेखांकित करने वाला है। 11 अगस्त, 1908 को ब्रितानी हुकूमत ने जब खुदीराम बोस को फांसी पर लटकाया तब उनकी उम्र 18 साल आठ माह आठ दिन थी।

हुआ यूं थाः कलकत्ता (कोलकाता) में चीफ प्रेसिडेंसी जज किंग्सफोर्ड थे। किंग्सफोर्ड पूरे बंगाल में भारतीय क्रांतिकारियों को कठोर सजा देने के लिए जाने जाते थे। इस वजह से वह भारतीय क्रांतिकारियों की नजर में थे। अंग्रेजों को इसकी भनक लग चुकी थी। इसलिए उन्होंने जज किंग्सफोर्ड का तबादला मुजफ्फरपुर कर दिया। जज किंग्सफोर्ड को मारने की जिम्मेदारी दो युवा क्रांतिकारियों खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी को मिली थी। दोनों किंग्सफोर्ड के पीछे-पीछे मुजफ्फरपुर आ गए। यहां दोनों ने जज किंग्सफोर्ड की रेकी की। दोनों ने देखा कि जज किंग्सफोर्ड रोजाना यूरोपियन क्लब से बग्घी में निकलते थे। दोनों ने योजना बनाई कि जिस बग्घी में जज किंग्सफोर्ड सवार होंगे, उसे विस्फोट से उड़ा दिया जाएगा।

30 अप्रैल 1908 का दिन। दोनों क्रांतिकारी अपनी योजना को पूरा करने के लिए तैयार थे। क्लब से एक बग्घी बाहर निकली और दोनों ने उस पर बम फेंक दिया, लेकिन बग्घी में जज किंग्सफोर्ड की जगह दो महिलाएं सवार थीं। हमले में दोनों की मौत हो गई। जज किंग्सफोर्ड को मारने का प्लान अधूरा रह गया। हमले के बाद दोनों भाग निकले। पुलिस से बचने के लिए दोनों अलग-अलग दिशा में भागे। प्रफुल्ल चाकी समस्तीपुर में एक रेलगाड़ी में बैठ गए। रेलगाड़ी में पुलिस सब इंस्पेक्टर भी सवार था। उसने चाकी को पहचान लिया और पुलिस को सूचना दे दी। अगले स्टेशन पर चाकी को पकड़ने के लिए पुलिस तैयार खड़ी थी। चाकी ने भागने की कोशिश की, लेकिन चारों तरफ से घिरे होने की वजह से भाग नहीं सके और उन्होंने खुद को गोली मार ली। इस बीच वैनी पूसा रोड स्टेशन से खुदीराम बोस गिरफ्तार कर लिए गए। उन पर मुकदमा चलाया गया। अंग्रेज सरकार ने केवल आठ दिन में ही सुनवाई पूरी कर दी। 13 जुलाई, 1908 को खुदीराम बोस को फांसी की सजा का फैसला सुनाया गया। बोस फैसला सुनकर हंसने लगे। जज ने समझा की कम उम्र के बोस सजा की गंभीरता नहीं समझ पा रहे हैं। जज ने उनसे हंसने की वजह पूछी, तो बोस ने कहा कि अगर मेरे पास मौका होता, तो आपको बम बनाने का तरीका बताता। इस फैसले के खिलाफ कोलकाता हाई कोर्ट में अपील की गई, लेकिन जज ने फांसी की सजा बहाल रखी। फांसी का दिन तय हुआ 11 अगस्त,1908।

खुदीराम बोस अपने हाथ में गीता लेकर वीर भारतीय की तरह निडर होकर फांसी के तख्त पर चढ़ गए। उनके चेहरे पर फांसी का बिल्कुल भी खौफ नहीं था। फांसी वाले दिन पूरे कोलकाता में लोगों का हुजूम लग गया। सबसे ज्यादा ताज्जुब लोगों को आखिरी वक्त में इस कम उम्र शख्स के मुस्कुराने और संजीदा रहने पर था। ब्रिटेन के तबके मशहूर अखबार द इंपायर ने फांसी के अगले दिन लिखा- खुदीराम बोस को फांसी दे दी गई। बताया जाता है कि वह सीना तान कर सूली पर चढ़ा। वह खुश था और मुस्कुरा रहा था। खुदीराम बोस की शहादत ने युवाओं में आजादी की नई अलख जगा दी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

6 + 2 =